सनातन धर्म के अनुसार, पुरुषार्थ का अर्थ है – मानव जीवन के चार मुख्य उद्देश्य या लक्ष्य। ये चारों मिलकर यह मार्गदर्शन देते हैं कि एक इंसान को अपना जीवन कैसे जीना चाहिए ताकि वह संतुलित, सुखी और आध्यात्मिक रूप से पूर्ण जीवन प्राप्त कर सके।
🕉️ चार पुरुषार्थ (Purusharthas) – जीवन के चार लक्ष्य:
1. धर्म (Dharma) – धर्म या कर्तव्य
धर्म का अर्थ है – सही आचरण, नैतिकता, और अपने कर्तव्यों का पालन।
इसमें व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों की पूर्ति शामिल है।
धर्म ही ऐसा आधार है जो बाकी तीनों पुरुषार्थों (अर्थ, काम, मोक्ष) को दिशा देता है।
धर्म के बिना अन्य पुरुषार्थ असंतुलित हो जाते हैं।
2. अर्थ (Artha) – धन या समृद्धि
अर्थ का मतलब है – जीवन यापन के लिए धन, संसाधन, और सफलता प्राप्त करना।
इसमें आर्थिक स्थिरता, व्यापार, नौकरी, और समाज में प्रतिष्ठा भी शामिल है।
लेकिन यह सब धर्म के अनुसार होना चाहिए – यानी नैतिक तरीकों से कमाया गया हो।
3. काम (Kama) – इच्छाएँ या सुख
काम का मतलब सिर्फ कामवासना नहीं है, बल्कि जीवन के सभी प्रकार के सुख – जैसे प्रेम, कला, संगीत, सौंदर्य, और आनंद – इसमें आते हैं।
यह मन और इंद्रियों के सुख से जुड़ा है, लेकिन धर्म के नियंत्रण में होना चाहिए।
इच्छाओं की पूर्ति जीवन को सुंदर बनाती है, लेकिन अति या गलत तरीके से किया गया काम विनाशकारी हो सकता है।
4. मोक्ष (Moksha) – मुक्ति या आत्मज्ञान
मोक्ष जीवन का अंतिम और सर्वोच्च उद्देश्य है।
इसका मतलब है – आत्मा का बंधनों से मुक्त होना, जन्म-मृत्यु के चक्र से निकल जाना, और ब्रह्म (ईश्वर) से एकाकार हो जाना।
यह तब प्राप्त होता है जब व्यक्ति अपने सच्चे स्वरूप (आत्मा) को जान लेता है।
शास्त्रीय संदर्भ
शिवपुराण
‘पुरुषार्थ’ शब्द शिवपुराण में स्पष्ट मिलता है— जहाँ कहा गया है कि भगवान (शिव) हैं।
उदाहरणतः शिवपुराण 2.2.41 में यह उल्लेख है कि “पुरुषार्थ‑प्रदान” (सौंपने वाला) एक गुण है।
विष्णु पुराण
विष्णु पुराण में भी पुरुषार्थों (चतुवर्गः ) का उल्लेख है जहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को जीवन के मुख्य उद्देश्य के रूप में बताया गया है।
धर्मशास्त्र तथा अन्य शास्त्र
कई धर्मशास्त्रों में अर्थ और काम की प्राप्ति के नियम एवं सीमाएँ धर्म के अनुरूप निर्धारित हैं ताकि जीवन संतुलित हो सके।
महा‑भारत आदि महाकाव्य
महाभारत में धर्म, अर्थ, काम आदि का विभिन्न प्रसंगों में अर्थ तथा व्यवहार दोनों में विवेचन मिलता है। सैनिक, राजा, गृहस्थ और साधु— हर भूमिका में ये विचार लागू होते हैं।
